मध्यप्रदेश के बढ़ई का बेटा बना भारत का पहला ओलंपियाड पदक विजेता, कमजोर आर्थिक स्थिति फिर भी जीता मेडल, जानिए इनका संघर्ष

खेल की दुनिया में कई प्रतिभाशाली खिलाड़ी होते हैं जो अपने खेल की बदौलत अपने परिवार, अपने शहर के साथ देश का नाम रोशन करते हैं । इसी बीच हम आपको एक ऐसे खिलाड़ी के बारे में बताएंगे जो कभी अपना पेट पालने के लिए बढ़ई का काम करते थे। शिक्षा के नाम पर जिसने टूटी हुई पेंसिल भी कभी हाथ में ना पकड़ी हो.. इसका किसी को अंदाजा नहीं था कि वहां एक दिन भारत को विश्व भर में पहचान दिलाएगा। जी हां हम बात कर रहे हैं रफीक खान की जो भोपाल के रहने वाले थे, इन्होंने जैसे तैसे शतरंज का खेल खेलना सीखा और एक दिन भारत को शतरंज ओलंपियाड में पहला मेडल दिलाया।

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1980 में रफीक ने रचा था इतिहास

दरअसल 1980 में माल्टा में ओलंपियाड आयोजित किया गया था इसमें रफीक खान ने तीसरे बोर्ड पर खेलते हुए नौ जीत, दो ड्रॉ और दो हार के साथ 13 में से 10 अंक हासिल किए। आगे चलकर भोपाल के रफीक खान भारत के सबसे शानदार शतरंज खिलाड़ी के रूप में उभर कर सामने आए ।शायद उनकी किस्मत ही थी कि उन्होंने शतरंज खेलना सीखा था। 1976 में रफीक खान ने बड़े स्कोर के साथ राष्ट्रीय चैंपियनशिप भी जीती। पहली बार केस्ट कम्युनिटी का ध्यान इनकी और गया और उन्होंने राष्ट्रीय चैंपियनशिप जीतने के लिए एक धुरंधर जाने-माने खिलाड़ी को शतरंज के खेल में हरा दिया।

रफीक की खराब थी आर्थिक स्थिति

हालांकि शतरंज में भारत को मेडल दिलाने वाले रफीक खान की आर्थिक स्थिति बहुत ही खराब थी। वहां बढ़ई का काम करके कुछ पैसे कमाते थे और अपना घर चलाते थे। काम के साथ ही वहां शतरंज का खेल भी जारी रखते थे, लेकिन कुछ दिनों बाद उनकी एक मैगजीन छपी इसके बाद इंडस्ट्री मिनिस्टर जॉर्ज फर्नांडिस ने उन्हें भारत हेवी इलेक्ट्रिकल लिमिटेड में नौकरी दे दी। इसके बाद उन्होंने 1980 में इतिहास रच दिया। माल्टा में हुए ओलंपियाड में भारत को उन्होंने पहला रजत पदक दिलाया।

रफीक खान जब भारत लौटे तो उनका जोरदार स्वागत किया गया था। भारत को शतरंज मेडल दिलाने वाले पहले खिलाड़ी थे। शतरंज से ही उनकी पहचान बनी हुई है, लेकिन इनकी कहानी को बहुत कम लोग ही जानते हैं। उनकी कहानी सुनने के बाद लोगों को विश्वास होने लगा था कि अगर भारतीय ना केवल शतरंज में हिस्सा ले सकते हैं, बल्कि जीत भी सकते हैं। वहीं ग्रैंडमास्टर प्रवीण थिप्से कहते हैं.. ओलंपियाड में एक गैर यूरोपीय खिलाड़ी के लिए एक पदक जीतना कुछ ऐसा था जिसके बारे में कोई सपने में भी नहीं सोच सकता था।

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